कम समय में पकने वाली अंगूर कि नई शंकर किसमें ( angoor ki kheti)
अंगूर एक लज़ीज़ एवं स्वादिष्ट फल है। इसे ताजा, पेय पदार्थ एवं सोमरस के रूप में किया जाता है। इसके अनेक ओषधिय गुण भी है। देश में अंगूर की उत्पादकता विश्वभर में सबसे ज्यादा है। किसानो को अंगूर की बागवानी से लगभग 5-10 लाख रुपये वार्षिक आय प्रति हेक्टर मिल रहीं हैं। हमारे देश में अंगूर की बागवानी दक्षिण एवं पश्चिम के उष्ण कटिबंधीय प्रांतों जैसे महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, तेलंगाना इत्यादि मे बहुतायत से की जा रही है। उत्तर भारत के उपोसन कटिबंधीय मैदानी क्षेत्रों में भी की जाती है तथा मई और जून में तुडाई की जाती है। इस समय केवल गिने चुने देशों में अंगूर की परिपक्वता आती है अतः आर्थीक दृष्टि से अंगूर की खेती काफी फायदेमंद है एवं उतर भारत में अंगूर उत्पादन एक विशेष स्थान रखता है।
उपोषण तथा उष्णकटिबंधीय क्षेत्र दिल्ली, उत्तर प्रदेश, हरियाणा और पंजाब में स्थित है। इस प्रकार की जलवायु वाले प्रदेशों में फरवरी मार्च में कलियों का फूटाव शुरू होता है।
इस प्रकार की जलवायु वाले प्रदेशों में अंगूर के पकने के समय पूर्व मानसून की बारिश प्रायः आ जाती है। इस कारण वश फलो मे फटने की समस्या बनी रहती है। इस प्रकार की जलवायु वाले प्रदेशों में केवल गिने चुने किसमें जैसे - परलेट तथा ब्यूटी सीड लेस को ही लगाया जाता है।
परंतु ईन दोनों किस्मों मे फलो से संबंधित कुछ समस्याएं गुणवता पर विपरित प्रभाव डालती है। उदहारण के तोर पर
परलेट मे दानों का छोटा बड़ा होना। ब्यूटी सीड लेस मे असमान रूप से रंग एवं मिठास आना मुख्य है। परिणामस्वरूप किसानो को नुकसान उठाना पड़ता है। इस समस्याओं के समाधान के लिए नई संकर किस्मों को विकसित किया गया है। इनका संक्षिप्त विवरण नीचे दिया गया है। ये किसमें जल्दी पक कर तैयार हो जाती है और फलों की गुणवत्ता भी अच्छी रहती है।
कम समय में पकने वाली नई किस्मे
1. पूसा स्वर्णिका
2. पूसा अदिति
3. पूसा त्रिसार
1.पूसा स्वर्णिका- य़ह शीघ्र पकने और बीज वाली किस्म हैं। इसके दानों का रंग सुनहरा पीला होता है। इसके फल ताजा खाने एवं मुननका बनाने के लिए उपयुक्त है। इसके फल पूर्व मानसूनी बारिश से पहले जून के प्रथम सप्ताह में पक कर तैयार हो जाते हैं। इसके फूल खिलने से पकने तक 80-85 दिनों का समय लगता है। गुच्छों का आकार बड़ा (386 gram)। दानों का आकार बड़ा (3.5 gram - 5.0 gram) तथा गोलाकार होता है। यह नहीं इसमे अधिक मिठास (20 se 22 degree ब्रिक्स) रहती है। मंडप प्रणाली में औसतन उपज 13-15 टन /हेक्टर मिलती है। इस किस्म के दानों का आकार समान रूप से गोल रहता है एवं सोट बैरिज विकार से मुक्त रहता है। बेल मध्यम ओजस्वी है और य़ह 5 वी - 6 वी कली पर गुच्छा देती है। यह संकर किस्म पाउडरी mildyu तथा एनथरेकनोज के लिए मामूली सहीषणु है।
2. पूसा अदिति
इस किस्म का विकास अच्छे संकरण द्वारा किया गया है। यह शीघ्र पकने वाली, बीज़ रहित, दानों के हल्के रंग वाली किस्म है।
इसके फल पूर्व मानसूनी बारिश से पहले पक कर जून के प्रथम सप्ताह में तैयार हो जाते हैं। फूल खिलने से पकने के बीच 80-85 दिन lagte हैं। गुच्छों का आकार बड़ा (397 gm), दानों का आकार बड़ा, गोलाकार, लंबा कार, एवं मिठास अच्छी (19.3 degree ब्रिक) रहती है। मंडप प्रणाली में औसतन उपज 13-15 टन /हेक्टर मिल जाती है। इस
प्रजाति में दानों के समान रूप से होने के
कारण यह शॉट बेरीज से मुक्त रहता है। दानों
पर जिब्रेलिक अम्ल का सकारात्मक प्रभाव
देखा गया है। बेल मध्यम ओजस्वी होती है
और 4-5वीं कली पर गुच्छा देती है। यह
संकर किस्म एंथ्रेक्नोज और पाउडरी मिल्ड्यू
के लिए मामूली सहिष्णु है।
3.पूसा त्रिसार
इस किस्म का विकास ('हूर x भारत
अर्ली') एवं 'ब्यूटी सीडलेस' के संकरण
द्वारा किया गया है। यह शीघ्र पकने वाली,
बीजरहित, दानों के हल्के हरे रंग वाली किस्म
है। इसके फल ताजा खाने एवं पेय बनाने के
लिए उपयुक्त होते हैं। ये फल पूर्व-मानसून की
वर्षा से पहले पककर जून के प्रथम सप्ताह में
पककर तैयार हो जाते हैं एवं फूल खिलने से
पकने तक 80-85 दिन लगते हैं। गुच्छों का आकार बड़ा (486 ग्राम), दानों का आकार
मध्यम (2.2 ग्राम), गोलाकार एवं मिठास
अच्छी (18.3 डिग्री ब्रिक्स) रहती है। मंडप
प्रणाली में औसतन उपज 12-13 टन/हैक्टर
मिल जाती है। इस किस्म के दानों का आकार
समान रूप में होने के कारण शॉट बेरीज से
मुक्त रहता है। दानों पर जिब्रेलिक अम्ल का
सकारात्मक प्रभाव देखा गया है। बेल ओजस्वी
होती है और यह 5-6वीं कली पर गुच्छा
देती है। यह संकर किस्म पाउडरी मिल्ड्यू
के लिए मामूली सहिष्णु है।
बाग की स्थापना
अंगूर का नया बाग लगाने की तैयारी में जमीन की समतलता का बहुत महत्व रहता
है। समतल खेत में पानी जमाव नहीं होता है। टपक सिंचाई में उपयोग होने वाले लेटरल
एवं एमित्टर में पानी समान रूप से चलता रहता है। इसलिए जमीन का ढलान एक प्रतिशत
से कम रहना चाहिए। इस तरह की जमीन में रेखांकन के अनुरूप 3.5 मीटर की दूरी
पर 0.75 x 0.75 x 0.75 मीटर आकार के गड्ढों की खुदाई अक्टूबर-नवम्बर में करनी
चाहिए। खुदे हुए गड्ढों को 15 दिनों तक खुला रखने के पश्चात जमीन की ऊपरी परत
वाली मिट्टी से भरना आवश्यक है। प्रत्येक गड्ढे में 15 कि.ग्रा. अच्छी सड़ी गोबर की
खाद, 200 ग्राम सुपर फॉस्फेट, 100 ग्राम सल्फेट ऑफ पोटाश, जिंक तथा लौह तत्व को
50 ग्राम की दर से डालना आवश्यक है। गड्ढे को भरते समय ऊपरी परत वाली मिट्टी में
मिलाकर गड्ढे को भर दें। जहां मिटटी एवं पानी में लवण की मात्रा होती है वहां प्रत्येक
गड्ढे में उन्हें भरने से पूर्व 1.5 कि.ग्रा. की दर से जिप्सम डाल देनी चाहिए। जनवरी में
जड़ित पौधों की रोपाई करना अच्छा रहता है। पौधा लगाने के पूर्व उचित मात्रा में खाद एवं
उर्वरकों को मिला देना चाहिए। जनवरी में पौधों की रोपाई करने के पश्चात हल्की सिंचाई
करना अति आवश्यक होता है। बेलों को मंडप प्रणाली में ऊपर चढ़ाने के लिए आवश्यक
सहारे से तारों तक सुतली से बांध देना चाहिए एवं समय-समय पर पार्श्व-कलियों को
निकालते रहना चाहिए, जिससे बेल की बढ़वार सीधी एवं तेजी से बनी रहे।
बेलों को सहारा देने की प्रणालियां
अंगूर की बेल मुख्य तने व शाखाओं
पर फलों का वजन सहन नहीं कर सकती है,
इसलिए बेल को एक विशेष प्रकार की प्रणाली
से सहारा दिया जाता है। इसमें पौधे पूर्ण-रूप
से सूर्य की रोशनी प्राप्त कर सकते हैं एवं
पत्तियों पर छिड़काव अच्छी तरह से किया
जा सकता है। देश में विभिन्न प्रणालियों का
आंकलन किया गया है जैसे-मंडप, निफ्फिन,
एक्सटेंडेड वाई इत्यादि। इन सभी प्रणालियों
में मंडप प्रणाली को अधिक प्रभावी एवं
एक्सटेंडेड-वाई को मध्यम ओजस्वी किस्मों
के लिए उत्तम माना गया है।
बेलों की छंटाई
उत्तर भारत के उपोष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों
में छंटाई शीत ऋतु के मध्य (दिसंबर से
जनवरी) में करते हैं। इस समय तापमान कम
होने के कारण समस्त पत्तियां गिर जाती हैं
एवं बेलें सुषुप्तावस्था में चली जाती हैं। इस
समय पेड़ों में कार्यिक क्रियाएं निम्न स्तर
पर रहती हैं। इस प्रकार पौधों में कटाई से
नुकसान नहीं पहुंचता है। अंगूर में अधिक एवं
स्वस्थ फल लेने के लिए शाखाओं को एक
निश्चित संख्या पर काटा जाता है जैसे-पूसा
अदिति, पूसा त्रिसार एवं पूसा स्वर्निका को 6
गांठ पर काटा जाता है। इस प्रकार इनमें फलत
अच्छी होती है। उपोष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों में
छंटाई के समय 2 गांठ वाली रिनिवल स्पर
(करीब 50 प्रतिशत) छोड़नी चाहिए। यह
आने वाले वर्ष में फल देने योग्य हो जाते
हैं। कांट-छांट के बाद बेलों पर 0.2 प्रतिशत
ब्लाइटॉक्स का छिड़काव करना चाहिए। पौधों
के आधार पर दिखाई पड़ने वाले सभी अंकुरों
को हाथ से हटा देना चाहिए।
खाद एवं उर्वरकों का प्रबंधन
अंगूर अधिक पैदावार देने वाला पौधा
है। अतः खाद एवं उर्वरकों का प्रबंधन
अतिआवश्यक है। प्रत्येक वयस्क बेल में 25
कि.ग्रा. अच्छी सड़ी गोबर की खाद, 250
ग्राम अमोनियम सल्फेट, 250 ग्राम सिंगल
सुपर फॉस्फेट एवं 200 ग्राम पोटेशियम
सल्फेट की आवश्यकता होती है। पोटेशियम
सल्फेट की दूसरी मात्रा (200 ग्राम) को
दानों के आकार के बढ़वार के समय देना
चाहिए।
सिंचाई प्रबंधन
उत्तर भारत में अंगूर लगाने के तुरंत बाद गर्मी
ऋतु प्रारंभ हो जाती है। इस प्रकार वायुमंडलीय
तापमान तेजी से बढ़ जाता है तथा पौधों में पानी
की जरूरत को बढ़ा देता है। इस कारणवश
पौधों की समय-समय पर उचित मात्रा में सिंचाई
करना आवश्यक होता है। सिंचाई, खाद एवं
उर्वरक देने के बाद भी आवश्यक होती
है। टपक विधि से सिंचाई अधिक उपयोगी रहती
है। अंगूर के दानों में रंग परिवर्तन की अवस्था
आने पर सिंचाई नहीं करें। इससे मिठास की
मात्रा में बढ़त होती है।
फलों की तुड़ाई एवं भण्डारण
जब दानों में कुल घुलनशील ठोस
पदार्थ की मात्रा लगभग 18 डिग्री ब्रिक्स
हो तो ताजा खाने के उद्देश्य से फलों की
तुड़ाई शुरू करनी चाहिए। कुल घुलनशील
पदार्थ अम्लता का अनुपात 25-35 के
मध्य होने पर भी गुच्छों की तुड़ाई कर
सकते हैं। तुड़ाई के बाद फलों को 1-4
डिग्री सेल्सियस तापमान एवं 90-95
प्रतिशत आर्द्रता वाले स्थान पर भण्डारित
किया जा सकता है। पूसा संस्थान से
विमोचित किस्में शीघ्र पकने वाली हैं
और इन्हें उपोष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों में
सफलतापूर्वक उगाया जा सकता है। ये
किस्में पूर्व मानसून की वर्षा आने से पहले
पक जाती हैं तथा बाजार में अच्छा भाव
भी देती है। इसके साथ ही ये किस्में पेय
(पूसा अदिति एवं पूसा त्रिसार ) एवं
मुनक्का (पूसा स्वर्णिका) बनाने के लिए
अधिक उपयुक्त हैं।
पौध संरक्षण के उपाय
उत्तर भारत में अंगूर के बागों में
आमतौर पर कीट तथा रोग की ज्यादा
समस्या नहीं आती है। कुछ कीट जैसे-दीमक,
पत्ती खाने वाला कीट (फ्ली या बीटल, ग्रास
हॉपर इत्यादि) बेल की पत्तियों को खाकर
पौधे को हानि पहुंचाते हैं। दीमक की रोकथाम
के लिए क्लोरोपायरिफॉस (5 मि.ली./लीटर
पानी) के घोल का उपयोग समय-समय पर
करें। फ्ली बीटल तथा ग्रास हॉपर की रोकथाम
के लिए इमिडाक्लोप्रिड (3 मि.ली./10 लीटर
पानी) के घोल का छिड़काव करें।
अंगूर की पत्तियों एवं दानों पर मुख्यतः
एंथ्रेक्नोज और पाउडरी मिल्ड्यू रोग आते
हैं। ब्लाइटॉक्स (3 ग्राम/लीटर) का छिड़काव
एंथ्रेक्नोज तथा पाउडरी मिल्ड्यू रोग के लक्षण
पड़ने पर तुरंत करें एवं केराथेन (3 ग्राम/
लीटर) का पाउडरी मिल्ड्यू की रोकथाम के
लिए छिड़काव करें।
अंगूर की गुणवत्ता बढ़ाने के लिए
जैव नियामकों का उपयोग
वानस्पतिक आंखों के शीघ्र फुटाव के लिए कांट-छांट उपरांत डार्मेक्स/ डोरब्रेक
(30 मि.ली./लीटर पानी में) का छिड़काव करें।
सुषुप्त आंखों के पूर्ण फुटाव के लिए थायोयूरिया (20 ग्राम/लीटर पानी में) के
दो छिड़काव करें।
जिब्रेलिक अम्ल का पहला छिड़काव गुच्छा निकलने पर (10 पी.पी.एम.) तथा
दूसरा छिड़काव गुच्छे की बढ़वार के समय (10 पी.पी.एम.) करने से गुच्छे का
आकार बढ़ने में सहायता मिलती है। फूलों के विरलन के लिए जिब्रेलिक अम्ल
के 20 पी.पी.एम. का छिड़काव करते हैं एवं बाद में दो छिड़काव जब दानों का
आकार 2 मि.मी. एवं 7 मि.मी. हो जाए, तब करने से दानों की लम्बाई एवं मोटाई
बढ़ाने में मदद मिलती है।
पौधों पर फलों को जल्द पकाने के लिए इभेल (1 मि.ली./4 लीटर पानी में) का
छिड़काव दानों की रंग बदलने की अवस्था पर करें।
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